Wednesday, 29 February 2012

समुत्कर्ष का साधन – धर्म


समुत्कर्ष का साधन – धर्म

जिस देश में प्रतिदिन पूजा के समय 192 करोड़ वर्ष की गणना के साथ संकल्प किया जाता हो, उसके लिये 2000 वर्ष कोई बहुत बड़ा काल नहीं है। पर जिनका इतिहास ही उनके ईश्वरदूत के जन्म से प्रारम्भ होता है उनके लिये ये बहुत ही बड़ी अवधि है। दूसरा उनकी कालगणना भी एकरेखीय होने के कारण उसमें परिवर्तन की एक ही दिशा देखी जा सकती है। हम हिन्दू अधिक वैज्ञानिक कालगणना के आदि है अतः हम कालचक्र की बात करते हैं और जानते हैं कि समय तो चक्रीय गति में चलता है अतः इसमें परिवर्तन भी किसी चक्र की भाँति होता है। सत्ययुग के बाद क्रमशः पतन होते हुए कलियुग आता है उसी प्रकार फिर उन्नति की सम्भावना भी बनी रहती है और पुनः सत्ययुग का आगमन निश्चित है। इसी अनादि अनन्त जीवन को जानकर हम अपने कर्म को धर्म के अनुसार करने का प्रयास करते है। सब परिस्थितियों में लागू करने योग्य शाश्वत अपरिवर्तनीय सिद्धान्तों पर आधारित सनातन धर्म को समझकर युग के अनुसार उसे लागू करने युगधर्म की व्याख्या भी समय समय पर होती रहती है। यही कारण है कि चिर पुरातन होते हुए भी यह संस्कृति नित्य नूतन भी है। सतत प्रवाहित नदी के समान ही इसमें मैल इकट्ठा नहीं होता और यह अपनी निर्मलता को पुनः स्थापित कर लेती है। गत कुछ शताब्दियों के संघर्ष काल के कारण यह युगानुकुल नवनिर्माण की प्रक्रिया कुछ शिथिल हो गयी है और हमारा कर्तव्य है कि सनातन धर्म को पुनः युगधर्म के रूप में व्यवस्था में स्थापित कर लें।

युनानी विद्वान मेगेस्थेनिस सम्राट चन्द्रगुप्त के समय भारत में आया था। निश्चित तो कहा नहीं जा सकता किन्तु ईसापूर्व 228 अर्थात लगभग 2200 वर्ष पूर्व का काल इतिहासकार बताते है। उसने अपने अनुभवों को शब्दबद्ध किया ‘इण्डिका’ नामक दैनन्दिनी में। वह भारत के वैभव, समाजरचना, कृषि सभी से अभिभूत था। किसी परिकथा के समान भारत का वर्णन उसके शब्दों में मिलता है। सबसे आश्चर्य उसे यहाँ की शांति को देखकर हुआ। कहीं कोई झगड़ा टंटा नहीं। कानूनी विवाद भी यदा कदा ही होते थे। कोई आपसी विवाद हो भी गया तो सहजता से उसका निपटारा हो जाता था। वैभवशाली स्वर्णयुग की हम बात कर रहे है। सब सम्पन्न थे, प्रसन्न थे। उसे जो पहला वादविवाद मिला वो था दो किसानों के बीच, पाटलीपुत्र, आज के पटना के पास। गाँव के सब लोग जमा थे। एक किसान ने कुछ दिन पूर्व ही अपनी खेती दूसरे को बेची थी। क्रेता ने जब जुताई प्रारम्भ की तो उसे उस जमीन में एक सोने का बरतन मिला जिसमें सोने के गहने भरे थें। वह किसान विक्रेता के पास उस सोने को ले आया और कहने लगा कि ये आपके पूर्वजों की सम्पत्ति है आप ले ले। विक्रेता किसान उसे लेने को तैयार नहीं था। उसका तर्क था कि जब मैने भूमि का सौदा किया तो उसके साथ उसमें जो भी था वह भी क्रेता का हो गया। दोनों अपने अपने तर्कों के अनुसार उस सोने पर दूसरे का ही अधिकार बता रहे थे। विवाद सम्पत्ति को रखने का नहीं, ना रखने का था। दोनों धर्म का वास्ता दें रहे थे। धर्म के अनुसार उस सम्पत्ति पर अपना अधिकार ना होने के कारण उसे अपने घर में रखना विषवत् मान रहे थे। बात तो न्यायालय तक भी गयी। न्यायालय ने क्रेता का अधिकार बताया किन्तु फिर भी वह किसान तैयार नहीं था उस धन को स्वीकार करने के लिये। उसका कथन था कि उसके सौदे के समय यह नियम नही था अतः धर्म को पूर्ववर्ती समय से लागू नहीं किया जा सकता। धन को राजा को सौंप दिया गया इस चेतावनी के साथ कि केवल धर्मकार्य अर्थात जनता के कल्याण के कार्य में ही इसका प्रयोग हो। यदि राजा ने भी अपने नीजी अथवा राजकार्य में इस अनधिकार धन का प्रयोग किया तो राज्य का भी अहित होगा। ऐसी धर्म की व्यवस्था इस देश में थी।
धर्म का ये व्यवस्थागत अर्थ समझना सबसे अधिक आवश्यक है। धर्म केवल व्यक्तिगत जीवन को सुव्यवस्थित करने का ही उपाय नहीं है वास्तविकता में यह ऐसी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने का नाम है जिसमे सबका हित हो। सबका साथ साथ विकास हो। विनोबा भावे ने इसे सर्वोदय का नाम दिया था। गांधी पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के विकास को राज्य की व्यवस्था का लक्ष्य मानते थे। इसी को पंड़ित दीनदयाल उपाध्याय ने नाम दिया ‘अन्त्योदय’। धर्म केवल सबके विकास की बात नहीं करता, सर्वांगीण विकास की बात करता है। सबका सर्वांगीण विकास। धर्म के अनुसार मानव के एकात्मिक विकास के दो अंग है - अभ्युदय तथा निःश्रेयस। यह दोनों मिलकर धर्म को परिभाषित करते है- अभ्युदय निःश्रेयसानि धर्मः।

अभ्युदय का अर्थ है पूर्ण उदय। अभि उपसर्ग लगाने से उदय के बाहरी व सर्वतोमूखी होने का अर्थ निकलता है। अभि उदय, अभ्युदय अर्थात पूर्ण भौतिक विकास। पूर्ण में संवेदना भी आती है। अतः, यह बाहरी विकास भी जैसा कि आधुनिक जीवन में हम देखते है, केवल मानव का एकांगी विकास नहीं है। ना ही यह केवल आर्थिक विकास है। अभ्युदय में विज्ञान और तकनिक के साथ ही पर्यावरण का भी ध्यान रखा जायेगा। अतः अक्षय विकास को लक्ष्य करती तकनिक का ही विकास किया जायेगा। प्रकृति का दोहन होगा शोषण नहीं। दोहन दूध निकालने की प्रक्रिया को कहते है। भारतीय परम्परा में उतना ही दूध निकाला जाता है जितना आवश्यक है। बछड़े के लिये पर्याप्त मात्रा में दूध छोड़ दिया जाता है। क्योंकि संवेदना है। गाय केवल आर्थिक उत्पादन का साधन नहीं तो माँ के स्थान पर है। ऐसी प्रक्रिया से भी विश्व का सर्वाधिक दूध उत्पादन करनेवाला देश भारत सदैव रहा है। गोवंश की संख्या मानव जनसंख्या से कई गुना अधिक रही है। यह सम्पन्नता का मापदण्ड भी है।

आज हम अभ्युदय के सर्वांगीण अर्थ को भूल गये हैं इसी कारण केवल पैसे को ही सर्वस्व मानती इस व्यवस्था में गायों के साथ कृत्रिम गर्भाधान से लेकर अधिक दूध पाने के लिये हारमोन इन्जेक्शन जैसे अत्याचार किये जाते है। यह शोषण है, दोहन नहीं। साथ ही बूचड़खानों में गोवंश के कटने का अनुपात भी कई गुना होता जा रहा है। इस कारण गोवंश का मानव जनसंख्या की तुलना में कम होना पर्यावरण संतुलन के साथ ही अभ्युदय में भी गिरावट लाता है। ब्रिटेन में कुछ वर्ष पूर्व इस लोभ में गाय को मांस खिलाने का अघोरी उपाय किया गया। कहा गया कि इससे गोमांस अधिक वजनदार होता है और अधिक लाभ होगा। इस राक्षसी विचार का परिणाम यह हुआ कि विक्षिप्त गो विकार (Mad Cow Decease) से हजारों लोगों की मृत्यु हुई। वर्तमान में फैल रही पक्षीजन्य ज्वर (Bird Flue) के पीछे भी ऐसी कोई आसुरी वासना काम कर रही है। यह केवल उपासना की बात नहीं है। गाय के साथ मानव के विकास का सीधा वैज्ञानिक सम्बन्ध है। इस बात को समझना धर्म है।

केवल अर्थोत्पादन को ही विकास मानने के कारण पर्यावरण का विनाश हर स्तर पर देखा जा रहा है। रासायनिक खाद, कीटनाशक तथा संकरित व अब तो जैव-विकृत (Genetically Modified) बीजों के कारण कृषि उत्पादन में भले ही वृद्धि दिखाई दे रही हो पर साथ में भूमि की उत्पादकता, खाद्यान्न की शुचिता व किसान के शुद्ध लाभ में दिनोंदिन हो रही गिरावट कुल मिलाकर गणित को नुकसान में ही ले जा रही है। इन सब अप्राकृतिक माध्यमों से आर्थिक लाभ को बढ़ाने के कृत्रिम प्रयासों ने विकास का बड़ा सा बुलबुला बना दिया है। किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं से यह स्पष्ट होता है। बात केवल इन प्राकृतिक संसाधनों तक ही सीमित नहीं है। मानव के लोभ ने प्रकृति, समाज तथा देशों तक का शोषण स्वयं के लाभ के लिये किया है। इस अंधादुंध स्पर्धा के बाद भी सारे तथाकथित विकसित देश आज खोखलापन उजागर होने से दिवालियापन के कगार पर है। इन देशों का ऋण इनकी सम्पदा के कई गुना हो गया है। यह आसुरी वृत्ति का परिणाम है। गीता के 16 वे अध्याय में इसका वर्णन हमें मिलता है। आशपाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः। ईहर्थेकामभोगार्थम् अन्यायेनार्थ संचयान्।। गी 16.12।। बिना धर्म के नियन्त्रण के अर्थ व काम पुरुषार्थ के पीछे पागल होनेवाले आसुरी वृत्ति के लोग सैंकड़ों ईच्छारुपी आशा के पाश में बन्धें काम और क्रोध में फँस जाते है। और लौकिक जीवन के भोगों की इच्छा से अन्याय पूर्वक अर्थात शोषण से अर्थ का संचय करते है। ऋण लेकर घी पीने की वकालत करने वाले चार्वाक की तरह ये आसुरी लोभी व्यवस्था धर्महीन अर्थ के दुश्चक्र में फँस जाती है। गतवर्ष जो वैश्विक वित्तीय संकट आया था उसके मूल में यही बिना उत्पादन के केवल मुद्रा के चलन के द्वारा लाभ का भ्रम पैदा करने की माया ही कारण थी। एक ही सम्पदा पर कई बार ऋण दिया गया और फिर जब उसके वापसी ना होने की स्थिति बनीं तो देशों ने झूठीं हुंण्डियों (Bonds) के सहारे विश्व में ही उथल पुथल मचा दी। यह अभ्युदय को ना समझने का परिणाम है, अधर्म है। गीता इस दुश्चक्र का स्पष्ट वर्णन करती है- इदम् अद्य मया लब्धं, इमं प्राप्स्ये मनोरथं। इदम् अस्ति इदम् अपि मे भविष्यति पुनर्धनं।। गी 16.13।। यह अभी मुझे मिल गया पर जो नहीं मिला वो भी पाने की मन में इच्छा है बिना उसके लिये कष्ट किये। फिर ये मेरा है, ये और मेरा होगा ऐसे धन को फिर फिर कैसे बनाया जाय। ऋण पत्र (Credit Cards), वायदा कारोबार (Speculative Commodity Market) तथा पुंजी बाजार (Share Market) यह सब जुए के ही वैधानिक रुप है।

अभ्युदय वास्तविक विकास का नाम है। दिखावे का नहीं। इसमें केवल आंकड़ेबाजी नहीं है। इसमें यर्थाथ में वीरता से पृथ्वि का दोहन कर धन, सम्पदा और इससे भी अधिक गहन ‘श्री’ का उत्पादन किया जाता है। केवल अपने लिये नहीं सब के लिये। सब में केवल मानव मात्र नहीं पूरी सृष्टि के संगोपन की बात है। अतः अभ्युदय के लिये निःश्रेयस का आधार अनिवार्य है। सामान्यतः निःश्रेयस को आध्यात्मिक विकास कह दिया जाता है। इससे बात स्पष्ट नहीं होती वास्तव में धुंधली होती है। यदि आध्यात्मिक विकास की ही बात करनी थी तो सीधे आत्मोदय ही कह देते। अभ्युदय और आत्मोदय। पर यहाँ पद है निःश्रेयस। अतः इस पद के प्रत्यय को, वैज्ञानिक अर्थ को समझना होगा। तभी धर्म को ठीक से समझ पायेंगे। आध्यात्मिक विकास यह अर्थ गलत नहीं है अपूर्ण है। निः श्रेयस्, हम सबको श्री की ओर ले जाने वाला। श्रेय को हमने पिछले प्रकरणों में विस्तार से समझा है। यहाँ व्यक्तिगत श्रेय की बात नहीं यह अंतिम कल्याण की बात है। इसीलिये इसको आध्यात्म से जोड़कर भी देख जाता है। किन्तु धर्म के अंग के रुप में इसको समझने में हमे ठीक से इसकी व्याख्या करनी होगी। श्रेयस् अर्थात श्री की ओर ले जाने वाला। पर इसका परिपूर्ण रुप, अंतिम स्वरुप निःश्रेयस इसको कैसे समझेंगे। यहाँ हमे अपने स्व की संकल्पना को ठीक से समझना होगा। स्व के सतत् विस्तारित होनवाले अखण्डमण्डल स्वरूप का साक्षत्कार ही निःश्रेयस है। यह अनुभूति हमें मानव के एकात्म स्वरुप का दर्शन कराती है। जिसे गीता में अविभक्त कहा है। सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकं।।गी 18.20।। जो कुछ भी अस्तीत्व में है, बना है उसे भूत कहते है। भू- भवति इस संस्कृत धातु का यह रुप है। इस सब में एक, अव्यय अर्थात अखण्ड, बिना किसी भी क्षति के एक भाव को ईक्षते- अर्थात देखना ही सच्चा, सात्विक ज्ञान है। बाहर से विभक्त अर्थात बिखरे, असम्बद्ध दिखाई देनेवाले जगत को अविभक्त अर्थात एक अखण्ड देखना ही ज्ञान है। इस ज्ञान की अनुभूति ही निःश्रेयस है। इस मानव के तथा जगत के एकात्म स्वरुप को देखे बिना अभ्युदय की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती।
by uttarapath
कर्मयोग 13:

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