Monday, 5 March 2012
हमारी पहचान - सनातन धर्म
हमारी पहचान - सनातन धर्म
चार मानस पुत्रों (हंसअवतार)- सनक, सनंदन, सनातन, संत कुमार द्वारा सृष्टि के नियम पूर्वक संचालन हेतु व्यवस्था कायम की- ’’सनातन धर्म’’। जिस प्रकार हर कार्य के संचालन हेतु नियम है, ठीक उसी प्रकार सृष्टि उत्पत्ति, संसार का सनातन धर्म में नियम समाहित है।
’’सनातन धर्म’’ का अर्थ है- आन्तरिक अथवा गहन सत्य। यह जीवन के आध्यात्मिक तत्व की वास्तविक व्याख्या है। यह केवल एक शब्द नहीं है, यह एक विचारधारा है, नियमावली है, एक परम तत्व है। इसमें जीवन को सही अर्थों में जीने और उसे सफल बनाने का मूल मंत्र समाहित है।
जीवन का अहम मूल्य सत्य है और सत्यता का पालन करना सनातन धर्म है। प्रश्न यह है कि सत्य क्या है, मनुष्य जन्म लेता है, पालन पोषण होता है। जीवन की ऊँचाईयों को प्राप्त करता हुआ अंत में विलीन हो जाता है। सत्य है, जो कुछ भी मनुष्य देखता है, तारे, सूर्य, चन्द्रमा जो कुछ भी हमें दिखता है, वह सत्य है तो फिर हम जिस सत्य की खोज में लगे हुये है, वो सत्य जिसमें परमात्मा दिखाई दे या वो सत्य जिसमें हमें अपने किये गये कर्म दिखाई देते है। मन की यह उलझन है जो गहन एवं शाश्वत सत्य है।
सनातन किसी व्यक्ति विशेष का विषय नहीं है। यह तो समग्र है, हर एक के लिये और एक सबके लिये, जिसकी पालना नियमपूर्वक निष्ठापूर्वक श्रद्धापूर्वक की जावे, वही सच्चा सनातन है। सनातन सुख है, जो आत्मा में समाया हुआ है, आत्मा का सुख परमात्मा का हार है। जो सच्चे मायने मंे सनातन अनुयायियों को ही प्राप्त होता है, जो दुर्लभ है किन्तु असंभव नहीं है।
सनातन की प्राप्ति द्वेष, ईष्र्या, छल, कपट और माया से मोहित व्यक्तियों से दूर है। केवल ईश्वरगामी सत्यनिष्ठा के प्रति समर्पित व्यक्ति ही इसे जान और पहचान सकता है।
सनातन धर्म को हिंदु धर्म का पर्यायवाची मानना पूर्णतया गलत है, क्योंकि हिन्दुत्व शब्द में जो संकीर्णता का आभास है, वह सनातन धर्म में नहीं है। हिन्दु शब्द की उत्पत्ति तो ’’सिन्धु’’ से हुई है, जिसका अर्थ है- सिन्धु नदी के किनारे बसी हुई सभ्यता। परन्तु वास्तव में देखा जाए तो सनातन धर्म एक विशाल वट वृक्ष की भांति है और हिंदु, जैन, बौद्ध, मुस्लिम व सिक्ख आदि सम्प्रदाय है। अर्थात् यह अनेक सम्प्रदायों का मूल तत्व है। ये सभी सनातन धर्म से ही सिंचित, पोषित व पल्लवित हुए है।
सनातन धर्म की परम्पराऐं व विश्वास इतने विस्तृत एवं शाश्वत है कि इन्हें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आसानी से देखा, समझा एवं अपनाया जा सकता है। योग, वेद-वेदान्त, उपनिषद, द्वैत-अद्वैत, धर्म, कर्म, पूजा, उपासना, श्रद्धा एवं विश्वास, सेवा, परोपकार आदि सनातन परम्परा के मूलभूत व अभिन्न भाग है।
केवल सनातन धर्म की ईश्वर तक पहुंचने का एक मार्ग है, जो जीते जी भगवान के दर्शन की बात करता है।
समय-समय पर इन तथ्यों को अनेक धर्माचार्य, राजनैतिक वर्ग से जुड़े बुद्धिजीवी एवं अन्य वर्ग स्वीकार एवं व्यक्त कर चुका है।
इसी सनातन परम्परा की सेवा में निरन्तर लीन है- हरीशेवा धाम भीलवाड़ा के कर्मयोगी, स्वनामधन्य, परमपूज्य स्वामी हंसराम जी उदासीन, जिन्होंने अपने जीवन को सनातन धर्म रूपी यज्ञ में पूर्ण मनोयोग से समर्पित किया है। जहाँ का मूल मंत्र है- ’’सुख चाहो तो सेवा करो, सुख चाहो तो सिमरन करो।’’
आपकी सनातन धर्म के प्रचार-प्रसारार्थ अखिल भारतीय सिन्धी साधु समाज के तत्वाधान में श्रीमद् भागवत महापुराण का सिन्धी देवनागिरी लिपि में अनुवाद करवाने में तत्पश्चात् इस ग्रन्थ के ’’भागवत महापुराण रथ यात्रा’’ के माध्यम से भारत भ्रमण का कार्यक्रम में महत्वूपर्ण भूमिका रही। इस रथ यात्रा के दौरान श्रीमद् भागवत महापुराण ग्रन्थ (सिन्धी देवनागिरी) का राजस्थान, म0प्र0, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराचंल के विभिन्न कस्बों एवं शहरों में धर्मस्थलों पर बिराजित किये गये तथा श्रद्धालुओं द्वारा भी ग्रन्थ को अपनाया गया। इसके अतिरिक्त अनेक सिन्धी शासकों के जीवन चरित्र से संबंधित पुस्तकों का प्रकाशन करवाया है। वैदिक व संस्कृत शिक्षा के प्रसार हेतु आवश्यक गतिविधियां एवं कार्य संचालित किये गये। पवित्र कर्मस्थली हरीशेवा धाम से अनेक छात्रों को प्रतिवर्ष वेदाध्ययन हेतु विभिन्न स्थानों पर भेजा जाता रहा है। हरि शेवा धाम प्रागंण में हरि सिद्धेश्वर मंदिर तथा बूढ़ा पुष्कर में हरिशेवा घाट, हरिहृदय घाट का निर्माण संपादित कराया। गुरूओं की समाधियों, आसन साहब, धूणा साहब, दरबार साहिब, मंदिर में नितनेम होकर समय-समय पर हवन यज्ञ, पूजा पाठ, सेवा-स्मरण कर गुरूओं के पर्व, विशेष जयन्तियां व सनातन धर्म के पर्व, उत्सव, त्यौहार मनाये जाते है।
सनातन परम्परा में जीव मात्र पर दया और उनके सरंक्षण का आग्रह किया गया है। इसी का पालन करते हुए आपके द्वारा गौसेवा एवं संरक्षण हेतु गौशालाओं का संचालन किया जाता है तथा गर्मी व प्यास से व्याकुल पक्षियों हेतु परिण्डे बंधवाये जाते है। ऐसे महायोगी व सनातन परम्परा के सरंक्षक इस धरा पर अवतरित होते रहेंगें, एवं यह परम्परा अन्नतकाल तक अक्ष्क्षुण रहेगी।
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