सिन्धुपति महाराजा दाहरसेन के 1300वे बलिदान दिवस के अवसर पर अजमेर में प.पू. सर संघचालक मा. मोहनराव जी भागवत द्वारा दिया गया उद्बोधन -
परम श्रद्धेय, परम वंदनीय, संत वृंद, मंच पर उपस्थित भारतीय सिंधु सभा के सभी माननीय पदाधिकारी, कार्यकर्ता, सम्मानीय अतिथि, उपस्थित नागरिक सज्जन एवं माता भगिनी। महाराजा दाहरसेन का जमाना 13सौ वर्ष पूर्व का जमाना है। आजकल दुनिया में ऐसा कहने वाले लोग मिलते हैं, कि बीती को बिसर जाओ, और जो है उसके साथ चलो, पुरानी बातें भूल जाओ, कभी कभी मेरे मन में आता है कि उनको पूछें कि आपका नाम कितने साल पुराना है, तो कोई कहता है 40 साल पूर्व रखा गया था, 50 साल पूर्व रखा गया था, 60 साल पूर्व, तो मैं कहता हूं आप तो उसको भूलते नहीं। बात बात पर अपना हस्ताक्षर उसी नाम से करते हैं। 50 साल बाद कोई आपको उसी नाम से पुकारे तो आप देखते हैं, अन्यथा नहीं देखते। तो ये बात सही है कि जमाने के साथ चलने में, कुछ बातों को बिसारना पड़ता है। लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में और मृत्यु के समय में भी याद रखनी पड़ती है। आदमी अपनी मृत्यु के क्षण में अपने सत्य स्वरूप को याद करता है तो तर जाता है। भूल जाता है जो जन्म जन्मांतर के फेरेां में फिर से फंस जाता है, और इसलिए मुझे जब पता चला, भारतीय सिंधु सभा के कार्यकर्ताओं ने कहा, वैसे उनका काम बहुत छोटा है, मैं यहां पर अपने व्यस्त सारे निर्धारित कार्यक्रमों में समय निकाल कर आया हूं। संघ शिक्षा वर्ग के प्रवास को संघ में कभी बदला नहीं जाता है, लेकिन मैंने अपने प्रवास को एक दिन कम करके यहां पर समय दिया है। इसका कारण क्या है, इसका कारण ये है, कि ये प्रसंग याद करने का प्रसंग है, और ऐसी बातों को याद करने का प्रसंग है, जिसे कभी भूलना नहीं चाहिए। महाराजा दाहरसेन का बलिदान क्यों हुआ था? वैसे तो उस समय के भारत वर्ष में अलग-अलग राज्य थे। अलग-अलग राजा थे। महाराजा दाहरसेन झगड़ा करने के बजाए संधि करा लेते, तो उनका भी जीवन बच जाता था, समर के सम्वार से हम सब बचाव उस समय हो जाता था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, वो लड़े, ऐसे भी अपने इतिहास में उदाहरण हैं कि ऐसी संधि लेागों ने की है। सिकंदर के सामने पौरस लड़ा, लेकिन आंभी ने उसके साथ संधि करदी। हम पौरस को याद करते हैं और आंभी के प्रकरण को भूल जाना चाहते हैं। कोई हमारे इतिहास में आंभी का उल्लेख करता है तो हमको अच्छा नहीं लगता, पौरस की कथा बताए तो हमारा सीना अभिमान से फूल जाता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि अभी सभी संतों ने, जिस मानवता का, जिस धर्म का उल्लेख किया, अपने जीवन के आचरण के नियम की दृष्टि से, उसके लिए भारतवर्ष खड़ा है, और लड़ाई से मुसलमान और हिंदुओं के बीच में नहीं थी, या दो राजाओं के बीच में नहीं थी। ये भूमि की लड़ाई नहीं थी। ये तो मूल्यों की लड़ाई थी। भारत वर्ष मानता है सारी दुनिया अपनी है, सारी दुनिया अपना परिवार है, ‘‘वसुधैव कुटुंबकम’’। भारत के बाहर के लोग ऐसा नहीं मानते। आज भी दुनिया केा एक करने की बात को लेकर भारत के बाहर के लोग चलते हैं। तब वो कहते हैं कि सारी दुनिया केा बाजार बनाएंगे। याने सबका आचरण बाजारू आचरण हेा जाएगा। ईमान को भी खरीद सकेंगे, ऐसी दुनिया बन जाएगी। भारत वर्ष को ये मंजूर नहीं है, वो ये नहीं कहता सारी दुनिया को एक बाजार बनाकर एक करें। वो कहता है सारी दुनिया को एक परिवार के आत्मीयता के सूत्र में बांधेंगे। ‘‘वसुधैव कुटुंबकम’’ ऐसा एक विश्व खड़ा करेंगे। और जहां परिवार है वहां अलग-अलग होने के बाद भी एकता होती है। एक परिवार में 7 भाई हैं सबके स्वभाव अलग हैं। सबका अपना अपना परिवार है। सबके अपने-अपने बाल बच्चें हैं। सबका अपना-अपना कारोबार है। लेकिन सब मानते हैं कि ये सब सबका है। ये सब मेरा ही है। और मेरा जो है वो हम सबका है। उसमें विविधता में एकता रहती है। दुनिया इस एकता को देख नहीं पाती। क्योंकी उसको इन साब बातों को विविधताओं को जोड़ने वाला जो सूत्र है, वो केवल भारतीयों के पास है। भारतीय संतों ने उसको अभी तक सुरक्षित रखा है। भारत में ये व्यवस्था है। कि वो सत्य के साथ साक्षात हेाकर समाज में आम लेागों में रह कर आम लोगों के जीवन में उस सत्य को उतारने वाले संतों की पंरपरा अभी भी चल रही है। और भारत का यही काम है, सारी दुनिया जब भटक जाती है, भूल जाती है, तो याद दिलाना अपने जीवन से सिखाना, ये भारत को करना होगा। उस भारत की इस भारतीयता को, हिंदुत्व को, सनातनत्व को, नष्ट करने के लिए आक्रमण था। एक नई बात लेकर लोग आए थे कि हम ही सही है बाकी सब गलत है।
सबको सही होना है तो हमारे ही रास्ते पर आना पड़ेगा। हम कहते हैं ऐसा नहीं है भई अपने-अपने रास्ते से चलो। मिलजुल कर रहो किसी को दुख मत पहुंचाओ, अहिंसक बनकर रहो, किसी को बदलने की कोशिश मत करो, जो बदल चाहिए वो अपने आप में करो। अच्छा है तो वो सारी दुनिया अपने आप बदल लेगी। इस तरीके से चलो ये उपदेश करने वाले हम और नहीं सारी दुनिया केा एक रंग में रंग देंगे बाकी सबको नष्ट करेंगे। हमारी ही चलेगी, हमारे ही जैसा रहना पड़ेगा। ऐसा मानने वालों की लड़ाई थी। इसलिए राजा दाहर ने ये विचार नहीं किया कि ये मेरे राज्य पर आक्रमण है। उसने ये विचार किया यह हमारी जीवन पद्धति पर आक्रमण है। ये मानवता पर आक्रमण है। ये सनातन धर्म पर आक्रमण है। ये हिंदुत्व पर आक्रमण है। उन्हेांने ऐसा विचार किया कब मुझे सपने में आकर बताया, ऐसा नहीं। ये विचार केवल पुस्तकों में नहीं था ये विचार केवल भाषणों में नहीं था। ये विचार राजा दाहर जैसे राजाओं के जीवन में था। राज्य करने की पद्धति में था। आज तो उनकी पुण्यतिथि है इसलिए उनके बलिदान का स्मरण विशेष रूप से हो रहा है, और होना भी चाहिए। लेकिन जो जीवन उन्होंने अपने देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए दांव पर लगाया। वो जीवन उसी देश, धर्म, संस्कृति के उदाहरण का प्रत्यक्ष प्रतीक था। उन्होंने कैसा राज्य चलाया? उन्होंने धर्म का आचरण कैसे किया, लेागों के और स्वयं के धर्म को बचाकर कैसे चले? लेागों में और स्वयं के जीवन में उस धर्म को बढ़ाकर कैसे चले? ऐसे ये सारे राजा थे। और इसलिए उस धर्म के मूल में जो तत्व है जिसको कोई ईश्वर कहता है, काई जड़ मानता है कोई चेतन मानता है, कोई आत्मा कहता है, काई नहीं कहता है। कोई शून्य कहता है। उस तत्व को साक्षात करने वाले लेागों के मार्गदर्शन में ये राजा चलते थे। इसलिए उनके साथ संतों के रूचियों के नाम अपरिहार्य रूप से आते हैं। इसको हम धर्मराज्य कहते हैं। धर्मराज्य यानि किसी पोथी के नियमों को मानकर चलना नहीं है। धर्मराज्य याने जिन्होंने उस तत्व को अपने जीवन में साक्षात किया है। और अपने जीवन से लेागों को सिखा रहे हैं। उनकी राय को सुनकर चलना। उस मानवता को मानकर चलना है। उन्नति सबकी करनी है, एक की नहीं है, एक के साथ सबकी, सबके साथ एक की। इस प्रकार विकास करना है। ये मानकर चलना है। ऐसा राजा दाहर का राज्य भी धर्मराज्य था, और राजा दाहर का अपना जीवन भी हिंदु गृहस्थ के धर्माचरण का उदाहरण है। और जब ये बारी आई के अब उस जीवन को फेंक देना पड़ेगा रण मैदान में। उस वैभव को उस परिवार के सुख को मिट्टी में मिला देना पड़ेगा। तभी देश की रक्षा होगी। मेरे मरने से ही लेाग जीने की प्रेरणा लेंगे। ये जब उन्होंने जाना तो इस नश्वर संसार के उस माया के खेल को उन्होंने उतना ही नश्वर मानकर अपने तलवार की नोंक पर लटका कर फेंक दिया।
हिंदु ऐसे जीता है जब जीता है। तब जीने में रस लेकर ऐसे जीता है कि लेाग कहें कि जियो तो ऐसे जियो, और जब उस माया के खेल को अंतिम सत्य के लिए दांव पर लगाकर फेंकने की बारी है तो ऐसे फेंकता है कि जुआरी जुए का पासा भी फेंकने में थोड़ा हिचकिचाएगा। हिंदु अपने जीवन को फेंकने में हिचकिचाएगा नहीं। ये हिंदु जीवन का आदर्श बचाने के लिए राजा दाहर का बलिदान हुआ। और इसलिए राजा दाहर उनकी भूमि, उनकी प्रजा ये कौन है? ये सब भारत के हैं। आज हम लोग सिंध की उस भूमि पर नहीं हैं। भारत अखंड नहीं है लेकिन भारत है। सिंध की भूमि पर आज भी सिंधी हिंदु रहते हैं। अधिकांश लेागों को इधर आना पड़ा है। लेकिन जैसे तैसे अपने को बचाकर वहां सिंधी अपने आप को कहते हुए, और हिंदु अपने आप को कहते हुए एक व्यक्ति जब तक जीवित है तब तक वहां भी भारत जीवित है। और इसलिए मैं कहता हूं कि अखंड भारत है। भारत अखंड नहीं है, लेकिन अखंड भारत है। हम भारत को अखंड बनाएंगे। तो अखंड भारत दुनिया के वैभव केा न्यान की बुलंदि पर चढ़ कर सारी दुनिया को सुख शांति का रास्ता देने में समथ्र्य होगा। क्योंकि आखिर मैं संघ का कार्यकर्ता हूं। संपूर्ण हिंदु समाज को संगठित करता हूं। तो छोटे सम्मेलनों में हम नहीं जाते। भाषाओं के, जातिपंथ विशेष के ऐसे सम्मेलनों में जाने के हमको रूचि नहीं रहती। लेकिन यहां मैं आया हूं, क्यों आया हूं, ये बताने के लिए आया हूं। जैसे बांग्लादेश के हिंदुओं की समस्या संपूर्ण हिंदु समाज की संपूर्ण भारत वर्ष की समस्या है। जैसे कश्मीर की समस्या कश्मीरी पंडितों की समस्या संपूर्ण भारत की समस्या है। वैसे सिंध के हिंदुओं की समस्या चाहे वो यहां हो या वहां हो। वो संपूर्ण भारत की समग्र हिंदु समाज की समस्या है। ये ंिहंदु समाज के और भारत के विभाजन के कारण पैदा हुए। ये हिंदु समाज के और भारत के एकीकरण की समस्या है। और उसके वैभव संपन्नता को प्राप्त करने के मार्ग में आने वाली बाधाओं की समस्या है। हमारे सिंधी भाई अगर राजा दाहर को स्मरण करते हैं। सिंधी भाषा को बचाने का प्रयास करते हैं, सिंधी की भूमि पर फिर से हम बस जाएं उसी तरह स्वतंत्र होकर अगर बस जाएं ऐसा प्रयत्न करते हैे तो वो सिंधी भाईयों के हित का प्रयत्न नहीं है वो भारत के हित का प्रयत्न है। हम सब सिंधी भाषी को लेागों केा भी और भारत वर्ष के बाकी सब लोगों को भी इसको समझना चाहिए। ये सूत्र नहीं छूटना चाहिए। भारत की हर भाषा भारतीय भाषा। भारत की हर भाषा मेरी मातृभाषा है अगर मैं वहां रहता हूं। हमारे संघ में परिचय चलता है हर बार परिचय होता है। परिचित लेागों का भी फिर से परिचय होता है। तो परिचय में कभी कभी लेाग बोलते हैं जैसा रिवाज है। मूलतः मैं यहां का रहने वाला हूं मूलतः मैं वहां का रहने वाला हूं मैं कहता हूं भई मूलतः तुम कहां के रहने वाले हो, मूलतः तो तुम भारत के रहने वाले हेा। भारत का कोई व्यक्ति कहां जाएगा, वो भारत में कहीं भी जा सकता है। सिंध से उजड़ा गया तो कहां गया हम अमरीका में नहीं गए हम भारत की ओर, कुछ लेाग गए, बाहर भी गए, लेकिन वहां जाने के बाद भी आने की चाह इधर ही रखते हैं और अधिकांश लेाग तो इधर चले आए क्यों क्योंकि ये स्वाभाविक बात है। सारा भारत मेरा घर है तो मूलतः भारत क्या है? लेकिन भारत क्या है? भारत एक भाषा नहीं है, भारत एक प्रांत नहीं है, भारत एक पंथ संप्रदाय नहीं है। सब पंथ संप्रदाय है, सब भाषा भाषी, सब प्रांत मिलकर भारत बनता है। भारत के वो अभिन्न जैसे पानी और पानी की बूंद अलग नहीं हो सकते। बूंद अलग हो गई बूंद सूख जाएगी पानी रहेगा। लेागों बूंदों का पानी नहीं कहेगे। पानी की बूंदें कहेंगे। पानी में बूंदें हैं। दिखती नहीं अलग लेकिन निकाल सकते हैं निकालने के बाद उनका अस्तित्व नहीं रहता। मिलकर रहती हैं बूंदों से ही पानी बनता है। घड़े को भरना है तो बूंद बूंद से ही भरना पड़ता है। बूंद और पानी अलग नहीं हैं। आप बूंद केा नकार के पानी को नहीं बना सकते। पानी को नकर के बूंद केा जीवंत नहीं रख सकते। और इसलिए भारत वर्ष से कोइ्र बूंद छिटक जाए, बिखकर जाए, अलग हो जाए, भारत वर्ष अधूरा है। एक बूंद पानी कम हो जाएगा। वो कभी भी पूरा पानी नहंी कहलाएगा। एक बूंद कम पानी ही कहलाएगा। और इसलिए भारत को अखंड होना आवश्यक है। और ये अपरिहार्य भी है अनिवार्य भी ये होना ही है। क्यों, कयोंकि ये नहीं रहा तो दुनिया नहीं बचेगी। दुनिया चल पड़ी गलत राह पर, सुख के पीछे। और सुख के इतने सारे प्रयोग 2000 वर्षों में कर लिए लेकिन दुनिया को सुख नहीं मिल रहा है। इसलिए सारी दुनिया के समझदार लेाग अब भारत वर्ष की ओर देख रहे हैं, कि भारत वर्ष खड़ा हो। लेकिन लंगड़ा लूला आदमी खड़ा नहीं हो सकता। दुर्बल आदमी खड़ा नहीं हो सकता। बीमार आदमी खड़ा नहीं हो सकता। वैसे बीमार देश, लंगड़ा लूला देश, दुर्बल देश खड़ा नहीं हो सकता। और इसलिए पूर्ण अंग बनकर अपने समस्त अंगों को फिर से जोड़कर भारत को खड़ा होना पड़ेगा। इस दृष्टि से आप यहां जो प्रयास कर रहे हो वो बहुत महत्वपूर्ण प्रयास है। आखिर भारत की हर भाषा भारत के स्वत्व तक पहुंचाती है। मूल एकता तक पहुंचाती है। भारत का हर प्रांत, भारत का हर पंथ संप्रदाय, भारत की हर जाति अपने में से भारत के मूल को पहुंचाती है। हर एक का सबल होना और सबल होते समय हम एक पूर्ण के घटक हैं इसका भान रखना भारत की सबलता में मदद करना है। अब अपने स्वत्व की पहचान कर रहे हैं। आप अपनी मातृ भाषा का उद्धार करना चाहते हैं, करना हि चाहिए क्योंकि बिना मातृ भाषा के आदमी माता का पुत्र नहीं बन सकता। भाषा के साथ भाव आता है। हम चाहे जितनी अच्छी अंग्रेजी बोल लेंगे। हमारे भाव जगत को हम व्यक्त नहीं कर सकते। अंग्रेजी भाषा में हमारे कई भावों के लिए शब्द नहीं हैं। जैसे अंग्रेजी के कई भावों के लिए हमारे यहां शब्द नहीं हैं। हमारे मूल्यों और जीवन के जिन मूल्यों में से अंग्रेजी भाषा आई है वो मूल्य अलग अलग हैं इसलिए कई बातें वहां हो नहीं सकती। जो हमारे यहां होती है। जो हमारे यहां हो नहीं सकती, वहां जो होती है। कोई महिला अगर वहां जाएगी तो लोग उसकी सुंदरता की प्रशंसा करेंगे, सार्वजनिक रूप से, सबके सामने, उसके भी सामने। आंखें कितनी सुंदर हैं, बदन कितना कोमल है, कपड़े कितने अच्छे फबते हैं, ऐसा कहेंगे। तो वो महिला गुस्सा नहीं होगी, लोग भी गुस्सा नहीं होंगे, महिला उल्टा लेागों को धन्यवाद देगी, थैंक यू कहेगी। हमारे यहां महिला की अनुपस्थिति में भी चार सभ्य लेागों में ऐसी चर्चा कोई करे तो लोग जूता मारेंगे। चार लेागों में पति भी अपनी पत्नी को बच्चे की मां के नाम से पुकारता है। रामू की मां को बुलाओ ऐसा कहता है। वो चार लेागों में भी अपनी पत्नी को पत्नी नहीं कहता, क्योंकि हमारी धारणा है कि समस्त महिला वर्ग मातृ वर्ग है। हम महिलाओं में माता को देखते हैं। वहां महिलाओं को एक भोग की वस्तु मानते हैं, जिसके सिवाए जीवन का उपभोग पूर्ण नहीं होता, ऐसा एक अनिवार्य साथी है, इतना ही मानते हैं। हम ये नहीं मानते हम ये मानते हैं ये जगत जननी जगदम्बा का रूप है। इसलिए कुमारी पूजन होता है। कुंवारी कन्याओं को तो चरण स्पर्श भी नहीं करते देते। लेाग उनका चरण स्पर्श करते हैं। ऐसे रिवाज अपने यहां पर हैं, अब ये मूल्यों का अंतर है। इसकेा भाषा में कहना है तो अंग्रेजी भाषा में व्यक्त नहीं कर सकते। उसके लिए हमारी ही भाषा चाहिए। हमारे भाव का विकास अगर करना हो तो हमारी मातृ भाषा को जीवित रहना चाहिए। आप यहां पर बुजुर्ग लोग बैठे हैं, उनको मुझे ये उपदेश करने की आवश्यकता नहीं। आप सिंधी भाषा को अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन अपने घर में ध्यान दीजिए, नई पीढि़ उसको भूल रही है। भूलना नहीं है, आने वाली नई पीढि़ अपने मूल निवास स्थान को नहीं भूले। अपने पूर्वजों को न भूले। अपनी भाषा को नहीं भूले। राष्ट्र इसी में से जीवित रहता है। और सिंधी भाषा की स्मृति, सिंधी भाषा का ज्ञान, सिंध की स्मृति और सिंध के महापुरूषों का इतिहास, ये भारतीय भाषा का ज्ञान है। भारतीय पूर्वजों का इतिहास है, भारत के भूभाग की स्मृति है। उसको भूल जाउंगा, तो मैं अपने कंधों को भूल जाउंगा। मैं मेरे पैर की चिंता करना भूल गया, बाकी सब अच्छा हूं और चल रहा रहा हूं। और पैरों को टेढ़ा मेढ़ा डाल दिया। तो पैर मोच खाता है और मेरे शरीर को बैठ जाना पड़ता है। बिस्तर में लेटना पड़ता है। दो तीन दिन चलने फिरने लायक नहीं रहता हूं। जब तक वो ठीक नहीं हेाता, तब तक मेरा चलना फिरना बंद हेा गया। तो सभी को याद रखना है और हमको तो विशेष रूप से याद रखना है। क्योंकि हमको सीधी वो विरासत मिली है। उस विरासत को याद रखना क्योंकि आज दुनिया में फिर से वो ही लड़ाई है। सारे दुनिया के मानव उसी लड़ाई को लड़ रहे हैं। और उनको कोई सेनापति दूसरा मिलेगा नहीं भारत के सिवा। भारत को सेनापति बनकर खड़ा होना है। सारी दुनिया में कट्टरपन और उदारता की लड़ाई चल रही है। दुनिया की जो लड़ाईयां चल रही है। वो कट्टरपन और उदारता की लड़ाई चल रही है। कपट और सरल धर्मयुद्ध की लड़ाई चल रही है। धर्मयोद्धा की और कपट योद्धा की लड़ाई चल रही है। सारी दुनिया में चल रही है। सारी दुनिया में एकांतिक कट्टरपन की दृष्टि और सबको साथ लेकर चलने वाली एक के साथ सबका और सबके साथ एक का विकास साधने वाली दृष्टि। उसकी लड़ाई चल रही है।
सारी दुनिया में सब देशों के लोग लड़ रहे हैं। लेकिन उनको रास्ता दिखाने वाला, व्यूहरचना समझाने वाला अपने युद्ध को जीतने के लिए अपनी कला कैसे हो ये समझाने वाला सेनापति नहीं है। सेनापति देने का काम भारत वर्ष का है। तो भारत वर्ष को खड़ा होना पड़ेगा। और भारत वर्ष बिना अपनी सब भाषाओं के बिना अपने सब प्रांतों के लेागों के बिना अपने सब प्रातों के भूभाग के खड़ा नहीं हो सकता। और इसलिए आज भारत अखंड नहीं है। लेकिन अखंड भारत है। वहां के हिंदुओं के हृदय में और हमारे हृदय में सुरिक्षत है। उसको इतना बलवान बनाना है। कि अपने भौतिक रूप को भी भूमि सहित लेकर वो वैभव संपन्न, शक्ति संपन्न, समरस बनकर खड़ा हो। हमको सत्य को प्रकट करना है। हमकों और कुछ नहीं करना है। सत्य के पीछे हमारे जीवन की ताकत खड़ी रहेगी तो सत्य की विजय निश्चित है। सत्य कभी मरता नहीं। सत्य की जीवंत रहने की ताकत है। सत्य अमर है, क्योंकि सत्य ईश्वर का अंश है। ईश्वर ही सत्य है, सत्य ही ईश्वर है। लेकिन उसको साकार रूप में दुनिया में सबल होकर खड़ा रहने की उसको शक्ति चाहिए। और शक्ति उसका आचरण करने वाले मनुष्यों की शक्ति होती है। वो हम लेाग मुनष्य है। संपूर्ण हिंदु समाज है। अपने सब भाषा भाषी लेागों के साथ वो हिंदु समाज खड़ा है। अपनी विरासत को ध्यान में रखे, अपनी विरासत के जीवन को आज के अपने जीवन से फिर से जीवित करे। अपने भूमि का प्रकट करे। अपनी भूमि पर खड़ा हो। ये हो जाए तो सारी दुनिया को सुख शांति देने वाला एक सेनापति मिल जाएगा। सारी दुनिया का जीवन सुंदर हो जाएगा। सारी दुनिया का जीवन अखंड हो जाएगा। मानवता सारी एक कुटुंब के रूप में आचरण करते हुए परमात्मा की ओर कदम बढ़ाएगी। यही बात अपने संत कहते हैं। अपने संतों की इच्छा सीमित नहीं रहती है, एक भूभाग की नहीं रहती है, देश के लिए नहीं रहती है। वो कहता है संपूर्ण विश्व सुखी होना चाहिए। सर्वे तु सुखि न संतु सर्वे संतु निरामया सर्वे भद्रणीं पश्चंतु मा काश्चिद दुख भाग भवेद। किसी को दुख न हो, सबको अच्छा ही देखने को मिले। द्योः शांति, अंतरिक्ष शांति, पृथ्वी शांति, शांति भी शांत हो जाए। सारे विश्व के मंगल की कामना करने वाले ऋषि मुनियों के हम वंशज हैं। उनकी विरासत को अपने जीवन में उतार कर चलना है, ऐसा चलने में संघर्ष अपरिहार्य है। भगवान सबकी परीक्षा लेता है। हमारी भी ले रहा है और लेते रहेगा। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए पेपर को कैसे देना चाहिए, उत्तर कैसे लिखना चाहिए, राजा दाहरसेन जैसे हमारे महापुरूषों ने अपने जीवन से बताया है उसको भूलना नही। ये जीवन हमको सिखाया अपने भूमि में। आप कल्पना कीजिए दुनिया में हमकेा जीना है, और अगर भूमि मिली है अरबस्तान जैसी और अगर भूमि कुछ नहीं दे रही तो हमारे सामने क्या चारा रहता? हम भी रेगिस्तान से आने जाने वाले व्यापारी काफिलों की सेवा करते, छोटे छोटे काम ईमानदारी से, सस्ते में ज्यादा समय लगाकर प्रामाणिकता से करते, क्योंकि वो कोई परमानेंट नौकरी नहीं है। आज का काम कल फिर से मिलना चाहिए। और ये नहीं करते बनता अहंकार प्रचंड है तो हाथ में तलवार लेकर उनका लूटते, हम लुटारू होते तो हमको भी लूटने वाले पैदा होते, तो हमको सदा तैयार रहना पड़ता। ऐसे ही हमारा स्वभाव बनता। हमारा स्वभाव ऐसा नहीं बना, क्यों नहीं बना? हिमायल की दोनों भुजाओं में सागर पर्यन्त फैली यह हमारी भारत भूमि विविधता से भरी हुई है। सब कुछ देती है, सबको देती है, सबके लिए पर्याप्त है। लड़ाई झगड़े करने की जरूरत नहीं है अपनी मेहतन करो, अपनी भूमि में। खूब कमाओं, खूब खाओ, सबको देते जाओ। बाहर से आए दो चार लोग तो हम पूछते नहीं तुम्हारी भाषा क्या है, तुम्हारा पंथ संप्रदाय क्या है? क्योंकि हमको विविध पंथ संप्रदायों में जीने की आदत है। विविध भाषाओं के बोलने वाले हम सब लेाग एक कुटुंब के नाते इकट्ठा रह सकते हैं। ये हमारी आदत है। हम उनको भी नहीं पूछते, आओ बसो, तुम भी बसो, तुम भी खाओ। हमको मतांतरण करने की जरूरत नहीं है। सारी दुनिया मिलकर कैसे चल सकती है, इसका नमूना हमारा जीवन है, हमारे जीवन की विरासत है। क्यों, क्योंकि हमारी भूमि ऐसी है। उस मातृ भूमि को नहीं भूलना, उसके बिना हमारा धर्म संस्कृति भी नहीं है। क्योंकि उसी ने हमको इस दिशा में भेजा। उसी ने हमको कहा कि बिना लड़ाई झगड़े के अगर जीवन चलता है तो क्यों खतरे में पड़ते हो? क्यों अपने मन को खराब करते हो कटुभावनाओं से। सत्य पर चलो, अहिंसा पर चलो, प्रेम से रहो, मिलजुलकर चलो, ऐसा करते करते हमने सारी दुनिया के मूल को, ईश्वर केा साक्षात कर लिया। उस भूमि का प्रताप है। वो जगत जननी माता हमारा पेाषण केवल देह का नहीं करती, हमारे मंदबुद्धि स्वभाव को भी उसी ने हमको दिया है। इसलिए हम भारत माता कहते हैं। उस भूमि को भूलना नहीं, उसका एक अंग उधर है आज। अपने बाजुओं के पुरूषार्थ पर कल उसको वापस लाएंगे। जैसा वापस ला सकते हैं, वापस लाएंगे। प्रेम से आ सकता है प्रेम से आएगा, नहीं संघर्ष करना पड़ेगा, संघर्ष करेगे। लेकिन पहले हम तैयार तो हो जाएं। हम याद तो रखें क्या क्या हमारा था। हम याद तो रखें कि हमारा जो था उसको हमारा ही रखने के लिए हमारे महापुरूषों ने कैसा-कैसा इतिहास रचा है। कैसे-कैसे बलिदान दिए हैं। नई पीढि़ में ये न्यान संक्रमित करना बहुत आवश्यक है। क्योंकि ये संघर्ष एक दो वर्षों का नहीं है। ये हजार वर्षों से चल रहा है। और आज मुझे लगता है मेरा अपना हिसाब है वो गलत भी हो सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि और 50-60 साल चलेगा। उसमें विजयी होना है। तो और आगे की दो-तीन पीढि़यां इसी भावना से इस संघर्ष को करे। अपना जीवन जले। अपना जीवन जलाए। भारत वर्ष के जीवन में आज एक श्रण नजर में आ रहा है। बाकी कोई खतरा हमारे लिए नहीं है। बाकी खतरे तो हमारे यहां हजार वर्षों से नाच रहे हैं। हमने उनको अपने इतिहास में और वर्तमान में दस-दस बार पछाड़ा है। और हमकेा समाप्त नहीं कर सकते। लेकिन जिस कारण हजार वर्ष के संघर्ष के बाद भी वो नाच रहे हैं, वो हमारी अपनी दुर्बलता है। वो दुर्बलता को दूर हटाना है। हमारी अपनी कमियों को दूर करना है। और हमारी अपनी कमियों को तभी दूर कर सकेंगे, जब हमारी कुलकीर्ति का ज्ञान हमको होगा। अपने पूर्वजों का ज्ञान हमको होगा। राजा जन्मेजय के सर्प यद्न में हिंसा हो रही थी, उस हिंसा को रोकने के लिए ऋषि आए उन्होंने उसको बंद करवाया और राजा जन्मेजय के यहां कथा करवाई। उस कथा में क्या बताया? राजा जन्मेजय के पूर्वजों की कथा पांडवों, कौरवों की कथा बताई। धर्म आचरण पर कैसे दृढ़ रहना उसके लिए संघर्ष कैसे करना फिर भी मन में अहिंसा प्रेम को ही कैसे पालना, कटुता कैसे नहीं आने देना ये बताया। राजा रामचंद्र को वनवास के दिनों में ऋषियों ने कहानियां बता बताकर रघुवंश की महत्ता बताई। हनुमान जी का बल जागृत करने में, हनुमान जी को जामवंज जी ने उन्हीं की कथा सुनाई। उन्हीं के पूर्व पराक्रम का ज्ञान दिया। हमको भी अपना पूर्व इतिहास याद करना है अपने महापुरूषों को याद करना है। उनके जीवन को याद करके अपने जीवन में उतारना है। नई पीढि़ में उतारना है। इस भावना को और इस संघर्ष को आगे बढ़ाते-बढ़ाते सारी दुनिया के सुख शांति के लिए, आज हमारी दुश्मन बनकर जो शक्तियां खड़ी हैं उनकी भी भलाई के लिए, उसको यशस्वी करना है। इस दृष्टि से आपका यह प्रयास उस प्रयास में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान देने वाला प्रयास है। और इसलिए
मैंने भारतीय सिंधु सभा के कार्यकर्ताओं ने एक-दो बार कहने पर अपेन कार्यक्रम को एक दिन कम करके यहां आना मान लिया। यहां आने पर जब मैंने देखा कि यहां सब सारे संत वृंद विद्यमान हैं तो मुझे लगा कि मैं यहां नहीं आता तो भी चलता, क्योंकि जो मुझ कहना है उसकी याद उन्होंने आपको दूसरे शब्दों में अभी मेरे सामने दी है। उनके इस संदेश को हृदयंगम कीजिए। अपने स्मृति को पूर्ण साबुत रखिए। आपने आरचण को उस स्मृति के अनुसार गढि़ए। और अपने नई पीढि़यों को उस स्मृति के संस्कारों में पालिए। अपने देश के, दुनिया के और अपने स्वयं के उद्धार का यही मार्ग है। भूलना नहीं है इसलिए इस स्मारक पर हम आए हैं। स्मरण हमको करना है, याद दिलाने का काम स्मारक कर रहा है, बहुत अच्छी तरह बना है। सारा इतिहास यहां पर है, एक बार देख लेंगे तो तरोताजा हो जाएगा। लेकिन उस इतिहास को अपने हृदय में कायम रखकर नया इतिहास रचने के लिए उन एतिहासिक महापुरूषों जैसी जीवन की प्रखरता को तेजस्विता को उत्पन्न करना अपने हाथ में है। उसको उत्पन्न करने का और नई पीढि़यों में भी उसका संस्कार डालने का संकल्प लेकर हम यहां से जाएं। संतों के आदेश केा सिरोधार्य करके उसका पालन करें इतना एक और आपके प्रति अनुरोध करता हुआ, आपका धन्यवाद करता हुआ, संतों को नमन करता हुआ मैं अपने चार शब्द सामाप्त करता हंू।
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